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उ॒तो हि वां॑ दा॒त्रा सन्ति॒ पूर्वा॒ या पू॒रुभ्य॑स्त्र॒सद॑स्युर्नितो॒शे। क्षे॒त्रा॒सां द॑दथुरुर्वरा॒सां घ॒नं दस्यु॑भ्यो अ॒भिभू॑तिमु॒ग्रम् ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

uto hi vāṁ dātrā santi pūrvā yā pūrubhyas trasadasyur nitośe | kṣetrāsāṁ dadathur urvarāsāṁ ghanaṁ dasyubhyo abhibhūtim ugram ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒तो इति॑। हि। वा॒म्। दा॒त्रा। सन्ति॑। पूर्वा॑। या। पू॒रुऽभ्यः॑। त्र॒सद॑स्युः। नि॒ऽतो॒शे। क्षे॒त्र॒ऽसाम्। द॒द॒थुः॒। उ॒र्व॒रा॒ऽसाम्। घ॒नम्। दस्यु॑ऽभ्यः। अ॒भिऽभू॑तिम्। उ॒ग्रम् ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:38» मन्त्र:1 | अष्टक:3» अध्याय:7» वर्ग:11» मन्त्र:1 | मण्डल:4» अनुवाक:4» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब दश ऋचावाले अड़तीसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में कैसा राजा हो, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! आप और सेनापति (त्रसदस्युः) डरते हैं दस्यु जिससे ऐसे होते हुए जो (हि) जिस कारण (वाम्) आप दोनों के भृत्य (सन्ति) हैं उन (पूरुभ्यः) बहुतों से (या) जो (पूर्वा) प्रथम वर्त्तमान (दात्रा) दाता जन आप दोनों (नितोशे) अत्यन्त वध करने में (क्षेत्रासाम्) क्षेत्रों को विभाग करने और (उर्वरासाम्) बहुत श्रेष्ट पदार्थों से युक्त भूमि सेवनेवाले को (ददथुः) देते हो (उतो) और (दस्युभ्यः) साहस करनेवाले चोरों के लिये (उग्रम्) कठिन (अभिभूतिम्) पराजय को और उसके साथ चोरों के लिये (घनम्) जिससे नाश करता है, उसका प्रहार करके कठिन पराजय को देते हो, इससे सत्कार करने योग्य हो ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे राजा और सेना के अध्यक्ष ! आप दोनों उत्तम प्रकार शिक्षित भृत्यों को रख दुष्टों को नाश करके और विजय को प्राप्त होकर न्याय से राज्य का पालन करो ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

कीदृशो राजा भवेदित्याह ॥

अन्वय:

हे राजन् ! भवान् सेनापतिस्त्रसदस्युस्सन् ये हि वां भृत्याः सन्ति तेभ्यः पूरुभ्यो या पूर्वा दात्रा युवां नितोशे क्षेत्रासामुर्वरासां ददथुरुतो दस्युभ्य उग्रमभिभूतिं तेन सह दस्युभ्यो घनं प्रहृत्योग्रमभिभूतिं ददथुस्तस्मात् सत्कर्त्तव्यौ स्तः ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उतो) अपि (हि) यतः (वाम्) युवयोः (दात्रा) दातारौ (सन्ति) (पूर्वा) पूर्वौ (याः) यः (पुरुभ्यः) बहुभ्यः (त्रसदस्युः) त्रस्यन्ति दस्यवो यस्मात्सः (नितोशे) नितरां वधे। नितोशत इति वधकर्मसु पठितम्। (निघं०२.१९) (क्षेत्रासाम्) यः क्षेत्राणि सनति विभजति तम् (ददथुः) दत्तः (उर्वरासाम्) बहुश्रेष्ठाः पदार्थाः सन्ति यस्यान्तां भूमिं सनति तम् (घनम्) हन्ति येन तम् (दस्युभ्यः) साहसिकेभ्यश्चौरेभ्यः (अभिभूतिम्) पराजयम् (उग्रम्) कठिनम् ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे राजसेनाध्यक्षौ ! युवां सुशिक्षितान् भृत्यान् संरक्ष्य दस्यून् हत्वा विजयं प्राप्य न्यायेन राष्ट्रं पालयतम् ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात राजाच्या धर्माचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - हे राजा व सेनेचे अध्यक्ष ! तुम्ही दोघे उत्तम प्रकारे प्रशिक्षित सेवकांना आपल्या जवळ ठेवून दुष्टांचा नाश करा व विजय प्राप्त करून न्यायाने राज्याचे पालन करा. ॥ १ ॥